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We originate from the source energy, the 'Soul', and we have to return back there. This is the main purpose of our life

Shri Krishnakant Sharmaji

Our simple process of spiritual practice uplifts seekers to a peaceful state where they realise their True Self

Param Pujya Shri Krishnakant Sharmaji

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत, क्षुरासन्न धारा निशिता दुरत्यद्दुर्गम पथ: तत् कवयो वदन्ति |

Katha Upanishad

सत्संग समर्थ गुरु के हृदय से प्रवाहित एक पवित्र धारा है

परम पूज्य श्री कृष्णकांत शर्माजी

सत्संग एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम जीवन की पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं

परम पूज्य श्री कृष्णकांत शर्माजी

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जीवन का ध्येय

कुछ दिन पूर्व मैं  सत्संग के कार्य से   UK , Netherland  गया हुआ  था। Netherland में  एक जगह सत्संग का आयोजन हुआ । वहाँ अध्यात्म के जिज्ञासु और  लोग आये  थे और बहुत से विदेशी थे । सबको  गुरुमहाराज की ध्यान की क्रिया  समझा कर   ध्यान हुआ ।  क्योंकि सभी लोग नए थे, बाहर के थे, अध्यात्म के पथ पर प्रश्न  बनना स्वभाविक था ।  

मैने जिज्ञासुओं से  कहा कि आप लोगो की कोई शंका हो तो पूछिये । बहुत से प्रश्न  लोगो ने पूछे,  समाधान होता गया।  एक महिला ने बहुत सुंदर प्रश्न किया। जीवन का ध्येय क्या है ? What is the aim of life ? मैने एक शब्द में  उत्तर  दिया - REALISATION । महिला शान्त हो गई।  पूरी सभा शान्त हो गई ।

Realisation  शब्द विशाल  है ,  बहुमुखी है और    जीवन  में पग पग पर  प्रयोग होता है। किसी भी अवस्था में मैं हूँ, एक शब्द मेरे सामने आता है ‘realise’ ।  मैं किसी देश का नागरिक हूँ,  तो realise  करता हूँ  मेरा अधिकार क्या है ?  मेरा कर्तव्य क्या है ?

कर्तव्य एवं अधिकार  दो आवश्यक वस्तुएं हैं और इनके   आवश्यक विधान है। अधिकार प्राप्त करने के लिए कर्तव्य करना होता है।  बिना कर्तव्य किये अधिकार प्राप्त कर लेना  सफलीभूत नही होता। जैसे किसी पद के योग्य मैं  नही हूँ और  कोई तरीका लगा कर वो पद प्राप्त कर लिया तो  उस पद की शोभा नहीं बढ़ा सकूँगा। यदि मैने अपने कर्तव्य पूरे किए होते तो अधिकार स्वतः  ही मिल जाता । कर्तव्य का परिणाम ही अधिकार होता है।

 तो पहले हमें यही देखना होगा कि मेरा कर्तव्य क्या है ?  क्या मैने अपने देश के प्रति कर्तव्य पूरे किए हैं ? पर हम अधिकार की चिंता करते हैं  । यदि मैने अपने कर्तव्य पूरे किए होते तो  अधिकार मुझे स्वतः ही मिल जाता ।

मैं किसी का पुत्र हूँ। मेरे सामने  यही चाह  होती है कि  पिता के धन, संपत्ति का   अधिकार  मुझे मिले। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या मैने पुत्र का कर्तव्य पूरा किया है ? यदि मैंने पुत्र के कर्तव्यों को  पूरा किया होता, पिता की आज्ञा मानी होती , पिता का सम्मान किया होता, पिता के  आदर्श जीवन में उतारे होते तब पिता प्रसन्न होते  और स्वयं मुझे सारे अधिकार दे  देते  और साथ  साथ मुझे आशीर्वाद मिलता जो मेरे जीवन के लिए उपयोगी होता। अधिकार कर्तव्य के बाद आता है।  मैं किसी का पिता हूँ, अब में अपना अधिकार समझता हूँ, की पिता हूँ, घर का मालिक हूँ , सबपर शासन करना है  । लेकिन क्या आपने अपने कर्तव्य देखे, सबको समानता की दृष्टि से देखा ? आपके  तीन पुत्र है,क्या तीनो में समानता देखी? परिवार की  बहुओं में समानता  देखी ? अपना कर्तव्य पालन किया? यदि किया  होता तब बिना किसी दिक्कत के परिवार आपका सम्मान करता । आपकी आज्ञा में चलता आपका घर स्वर्ग बनता, घर मे शान्ति होती।

मैं  अधिकार तो चाहता हूं लेकिन कर्तव्य पालन नहीं करता। जो अधिकार  ऐसे लिया जाता हैं , वो सफ़ल नही होता। हर जगह ये apply होता है। किसी भी क्षेत्र में आप हैं , किसी संस्था के  सदस्य हैं , क्या  संस्था का कर्तव्य पूरा किया। किसी मिशन से जुड़े हो  क्या वहाँ के नियम पालन किये। अपने जीवन में उतारे? अगर पालन किया होता, नियम उतारे होते तो अधिकार मिलता। अतः यह आवश्यक है कि हम अपने कर्तव्यों को   REALI SE  करें  । अध्यात्म में  ईश्वर क्या है ? उसकी व्याख्या नही वरन उसको realise करना है।  Realisation   अध्यात्म का शब्द है ।   

महर्षि पतंजलि ने ईश्वर क्या है ?  संसार क्या है ? मैं क्या हूँ ? इन सबके लिए साधना दी। कि यदि इस तरह से हम चलेंगे, तब हम देखेंगे ईश्वर क्या है ?  हर सामने खड़ा हुआ  व्यक्ति मेरे लिए परमात्मा स्वरूप ही होगा। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने आठ अंग बताये । यम, नियम, आसन, प्राणायाम , प्रत्याहार, धारणा ध्यान, समाधि । मैं मनुष्य हूँ। मनुष्य होना बहुत बड़ी बात है । बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन गावा 

मनुष्य योनी  में  तीन वृतियाँ होती हैं । मानवी, आसुरी, और दैवीय। दैवीय वृति में मैं  सबका सम्मान करता हूँ, सबसे मीठा बोलता हूँ । लोग कहते है भई देवता आदमी है । कर्मो से मनुष्य देवता  होते हैं  । राक्षस वृत्ति वालों का काम होता है लड़ना, झगड़ना, मारना -पीटना, हर तरफ  अशान्ति फैलाना । हम अपने वृत्ति अनुसार  कभी दानव और कभी राक्षस बनते है। जैसी वृत्ति  होती हैं वैसे ही हम बन जाते है।

जहाँ कोई वृत्ति  नही हो वो मनुष्य है। जैसे एक लकड़ी का टुकड़ा पानी में डाल दिया उसका गुण  है  बहना पर आपने उस पर दस किलो सोना रख दिया तो वो  डूब जाएगा। लोहा रख दिया तब भी डूब जाएगा। ऐसे ही अच्छे विचार, बुरे विचार दोनों ही डुबो देने वाले हैं। जहाँ मुझमे  कोई वृत्ति  न रहे तो मैं  मनुष्य हूँ। वहाँ मैं  realise करूँगा , मैं क्या हूँ, परमात्मा क्या है ?

यह realisation  तब होगा  जब हम एक अवस्था में  पहुंचेंगे जहाँ कोई वृत्ति नहीं होगी  । आप गीता , रामायण  या पुराणों की बात सुन लें , कंठस्थ कर ले पर realisation की  अवस्था में  नहीं  पहुँच पायेंगे ।  महर्षि पंतजलि ने इस अवस्था में पहुँचने के लिए आठ अंग दिये हैं ।  इनमे  तीन प्रमुख़ अंग है। धारणा, ध्यान और समाधि।

धारणा क्या है? हमें ध्यान करने के लिए कोई object  चाहिए ।  हम गुरुमहाराज  द्वारा  प्रदत्त  साधना करते हैं । आपसे कहा जाता है  कि ऐसा विचार करिये की सामने  से परमात्मा का प्रकाश आ रहा है। प्रकाश की एक कल्पना करनी है।  प्रकाश क्या है ? मैं नही जानता। जैसे एक गणित का विद्यार्थी है। एक सवाल को हल करना चाहता है।  सवाल का  जवाब वो ‘क’  मान लेता है । ‘क’ सवाल का  उत्तर नहीं है पर इस  कल्पना से आगे बढ़ता  हुआ गणित के  प्रश्न को हल कर देता है । इसी तरह धारणा में  हमें  एक base  बनाना है । परमात्मा का प्रकाश आ रहा। परमात्मा या  प्रकाश को मैं अभी नही जानता। मैने एक base बनाया कि  सामने से परमात्मा का प्रकाश आ रहा है। यहाँ से शुरू करना है। प्रकाश की धारणा करनी होगी जो आपका   base  होगा । ऐसे ही प्रकाश  से परमात्मा सामने नही आवेगा, बल्कि इस धारणा से आप गहरे ध्यान में जाएंगे ।

बहुत अभ्यास के बाद आप ध्यान केंद्रित कर लेंगे तो एक  सुंदर अवस्था आयेगी - समाधि । समाधि का अर्थ यह नहीं कि आप बिना साँस लिए महीनों बैठे रहे।  समाधि का अर्थ है जहाँ समता हो , मेरे मन की, बुद्धि की, चित की समता हो । जहाँ मेरा मन भी शांत हो ,मेरी बुद्धि भी,मेरा चित्त भी शान्त हो ,वो अवस्था समाधि की है। इसमें सारे विचार समाप्त हो जाएंगे । मैं बहुत हल्का हो जाऊंगा । मेरी बुद्धि निर्मल हो जाएगी औऱ वास्तव में मैं Realise करूँगा  मैं क्या हूँ,  ईश्वर क्या है ।

रामायण में एक बहुत सुंदर प्रसंग आता है, भगवान राम से लक्ष्मण ने बड़ा सुंदर प्रश्न  किया कि ईश्वर क्या है ? भगवान राम ने कहा कि ---थोड़े में न कहु बुझाई , सुनहु  तात  मति चित्त लायी। परमात्मा क्या है ? इस प्रश्न  का उत्तर लम्बा  -- चौड़ा नही है। मैं घण्टो बोलता रहूँ व्याख्यान  देता ।  थोड़े में कहु बुझाई  । उसके शब्द नही है  । शब्दो से व्याख्या नही कर सकता । हमें ईश्वर की  Realisation की  अवस्था मे जाना है ।  सुनहु तात मति चित्त लायी । मेरी बात को शांत मन से, शांत बुद्धि से ,शांत चित्त से सुनो। तुम्हारा मन, बुद्धि,चित्त सब समता में आ जाए। मन,बुद्धि, चित्त में कहीं  कोई विचार न रहे तब वो अवस्था होगी जहाँ समाधि होगी। उसे ही REALISATION कहा। अँग्रेजी में  तीन शब्द दिए।  CONCENTRATION, MEDITATION, AND REALISATION . Concentrate on one point, meditate upon it and then realise it .   परमात्मा का realisation  समाधि अवस्था में  जा कर ही होगा बल्कि इस अवस्था मे जाएंगे तो आपकी बुद्धि पकड़ लेगी वास्तव में ईश्वर  क्या है ? आपमे वो सारे गुण उतर आएंगे जो ईश्वर  में है।

इन ईश्वरिये गुणों को   शंकराचार्य ने चार भागों में बांटा। विवेक, वैराग्य , सम्पत्ति  औऱ मनुष्यता । ध्यान करेंगे तो मुझमें विवेक पैदा होगा । ध्यान करने से मुझे realize होगा कि  क्या करना है, क्या नही करना है। मेरा कर्तव्य क्या है ? नही करने वाले कार्य  छूट जाएंगे  ।   ध्यान से एक और गुण पैदा होगा ।  वैराग्य  ।  मुझमें जो विषय भर गए मेरे नही है।    मैं तो चेतन हूँ, अमल हूँ। ये काम ,क्रोध ,लोभ , मोह मेरा स्वरूप नही हैं , यह तो भर गए हैं । इन विकारों से वैराग्य होगा । वैराग्य  सन्यास लेना नहीं है । वैराग्य वो है, जहाँ मुझमे विषयो से उपरामता आ जाएं, घृणा हो जाए । मुझमें गुण पैदा होंगे ।

गुण बाहर से नही आते। आपमे सारे गुण है। एक बड़ा सुंदर मन्त्र आता है। उपनिषदों में ------ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्र्पूमुदच्यते ।

                              पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावश्ष्यिते । 

परमात्मा पूर्ण है और  ये प्रकृति जो देख रहे है वो भी पूर्ण है । उसमें कोई कमी नही है। आप जब उस अवस्था में जाएंगे तब देखेंगे कि मै भी पूर्ण हूँ, वो भी पूर्ण है। उसमें और मुझमें  कोई फर्क नहीं है। यह Realisation तब होगी जब आप अपने विवेक और वैराग्य से अपने  कर्तव्यों को पूरा करते हुए समाधि कि अवस्था में पहुंचोगे ।  बाहर नहीं है परमात्मा। परमात्मा हर व्यक्ति के अंदर बैठा है।  सबसे कोई नजदीक है तो वो परमात्मा ही है। उसे देखने के लिए पुस्तकें नही पढ़नी पड़ेंगी बल्कि  वो दृष्टि पैदा करनी होगी । इशावास्यमिदम् सर्वं यत्किञ्चत जगत्यां जगत । सबमे वही परमात्मा है । जैसे उदाहरण आता है वर्णमाला  "अ" का  । वर्णमाला के किसी भी अक्षर को देखें। उसमे अ जुड़ा हुआ है। मैं क, ख , ग बोल रहा हूँ, लेकिन अ की चिंता नही कर रहा हूँ । अ साथ लगा हुआ है। ऐसे ही यहाँ जो कुछ भी है, उसमे ईश्वर जुड़ा हुआ है। लेकिन  वो दृष्टि मुझे प्राप्त हो तो देखूँगा वास्तव में सब मे वही ईश्वर है। यहाँ और कोई है नही। गीता में आप पढ़ते हैं, भगवान कृष्ण लीलाएं कर रहे हैं। विराट स्वरूप दिखा रहे हैं। अर्जुन ने कहा----मैं तो देख नही पा रहा हूँ। भगवान ने कहा अर्जुन इन आँखों से नही देख पाओगे मुझे , इनमे पर्दा पड़ा है। भगवान  कृष्ण ने पर्दा हटा दिया । वो समता में आ गया। Realise कर लिया हाँ परमात्मा क्या है ।

ऐसे ही  परमात्मा हर  व्यक्ति में छुपा है। लेकिन जब मैं साधना के द्वारा उस अवस्था में पहुँच जाऊँगा तो  realization हो जाएगा कि  जड़ में, चेतन में, यहाँ जो कुछ भी है सबमें वही परमात्मा ही परमात्मा है। सबका सम्मान करूँगा। मेरी वाणी में सबके लिए सम्मान होगा । सबमें मेरा  गुरु बैठा है। सबका आदर करूँगा । वो चीज़ आपको प्राप्त हो जाएगी।

सारा संसार आपको प्रेम करेगा। कही आप अलग नही होंगे। चाहे विदेशो में, चाहे किसी देश में बैठे हो लेकिन वहाँ भी अपनापन ही  मालूम होगा  । अकेलापन यहाँ है ही नहीं। वास्तव में यही अध्यात्म ज्ञान है। यही वो    गुरु  देना चाहता है। इस अवस्था में पहुँचने के लिए हमारे गुरुमहाराज ने एक बहुत ही सरल उपाय दिया । हमारे गुरुमहाराज ने कहा भई, कुछ भी नहीं करना है। सत्संग एक पवित्र धारा है। इस धारा में आप बैठते रहें । मेरा कर्तव्य इस धारा से जुड़ जाना धीरे --  धीरे सारे विकार निकलते जाएंगे। जीवन का श्रेयस प्राप्त गए। आज के युग मे हमारे गुरुमहाराज ने एक नई चीज दी ।  साधना को एक  नया   वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया, भई देख लो  प्रयोग करके तो  आप देखेंगे वास्तव मे सत्य क्या  है। निरंतर रोजाना अभ्यास करते रहने से आप जीवन का श्रेयस प्राप्त कर जाएंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

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