बोध क्या है? अक्सर हम ज्ञान को बोध समझ लेते हैं। पर दोनो में बहुत अन्तर है। ज्ञान स्थूल है, बुद्धि से प्राप्त करते हैं। ज्ञान किसी व्यक्ति के माध्यम से प्राप्त करते हैं-माँ से, पिता से, शिक्षक से, विद्यालय में आदि । लेकिन बोध इससे अलग आत्मा को आत्मा को होता है । बुद्धि से प्राप्त नहीं होता है। आत्मा बोध करती है।
हर वस्तु के चार आयाम होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म , कारण और कारण से परे। ज्ञान तो स्थूल और सूक्ष्म तत्वों का होता है। लेकिन बोध सूक्ष्म के आगे-कारण और कारण से परे का ज्ञान है। अर्थात बोध से हमें चारो आयामों का ज्ञान हो जाता है। बोध पूर्ण ज्ञान है। हम क्या हैं?, संसार क्या है? इन सबका स्थूल, सूक्ष्म, कारण और कारण से परे के स्वरूप हमारे सामने आ जाते हैं। वास्तव मेें यहाँ है क्या ? पुराणों में बड़ा सुन्दर वर्णन आता है। उस निराकार परमात्मा की ईक्ष्णा हुई ‘एकाकी न रमते एकोऽम बहुत स्याम ।’ रमण एकाकी में नहीं होता बहुत के साथ होता है। परमात्मा अपनी इच्छा से प्रकृति के संयोग में आया और एक नया निर्माण हो गया। हम और आप उसी निर्माण के अंश हैं। निर्माण इसलिये हुआ था कि हम प्रकृति और आत्मा के संयोग से उस आनन्द को प्राप्त करे जो न प्रकृति में है न आत्मा में है। उस आनन्द का अनुभव करे। आनन्द आत्मा में है । लेकिन लक्ष्य प्रकृति में आकर स्वरूप रख कर उसका आनन्द और उस शान्ति को अनुभव करने का था। इसलिये परमात्मा ने यह विचार किया एक से बहुत हो जाऊँ।
हम और आप उसी बहुत परमात्मा के स्वरूप हैं। लेकिन हम अपना स्वरूप भूल गए। और प्रकृति के हो गए। भूल गए कि मुझमें परमात्मा का आनन्द भरा है। प्रकृति के सुख और दुख में जीवन व्यतीत करते रहे। इसलिये मेंरे जन्म के बाद जन्म होते रहे। लेकिन हमने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि इस शरीर के आगे मैं क्या हूँ। आत्मा में क्या है? उसे जागृत नहीं किया। आप जानते हैं कितना ही ज्ञान प्राप्त करें लेकिन मोह का आवरण जाता नहीं। तीन तरह के ज्ञान शास्त्रों में लिखा है। अनुमान, प्रमाण और प्रत्यक्ष। अनुमान और प्रमाण से पूरा ज्ञान नहीं होता। आवश्यक है प्रत्यक्ष ज्ञान का। हमारे गुरु महाराज ने यही प्रयास किया कि हमारा ज्ञान प्रत्यक्ष हो। जहाँ मैं उसका दर्शन कर सकूँ। यह बोध हो जाये कि मैं क्या हूँ, परमात्मा क्या है, प्रकृति क्या है। कितना ही हम ज्ञान की बात कहते रहे, कितना ही शास्त्रों का अध्ययन करते रहें लेकिन बिना बोध किये यहाँ से मुक्ति नहीं हो पाती। यह मोह का आवरण आसानी से हटता नहीं है। यह आवरण हमारे मन , बुद्धि , अहम् में भरा हुआ है। कितना भी प्रयास करते रहें कुछ निवारण नहीं होता है। सांप बांबी के अन्दर बैठा हो बंाबी को आप पीटते रहे सांप नहीं मरेगा। ऐसे ही सोते व्यक्ति को कितना ही ज्ञान देते रहे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मोह निद्रा में हम बैठे हैं कितना ही वेद अध्ययन करते रहें, ज्ञान सुनते रहें पर मोह कटेगा नहीं। आवश्यक है यह मोह का आवरण हटे। तब हमें वास्तव में बोध होगा।
भगवान कृष्ण स़त्रह अध्याय तक अर्जुन को ज्ञान का उपदेश करते हैं, अनेक प्रकार से समझाते हैं लेकिन अर्जुन कहता है ‘हे! पार्थ मैं अब भी निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ कि मेरा कर्तव्य क्या है? क्योंकि मोह का आवरण गया नहीं। ऐसे ही हम अनेको शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, प्रवचन सुनते है, गीता रामायण खूब कंठस्थ कर लेते हैं लेकिन मोह का आवरण नहीं जाता। कारण और कारण से परे अवस्था में गए नही तो मोह कैसे हटेगा। उस अवस्था में जाना भी आसान नहीं। शास्त्रो ने कहा इसका उपाय केवल संत का साथ है। आपने सुना गरुड़ को मोह हो गया। नारद जी के पास गया, भगवान विष्णुजी , ब्रह्माजी के पास गया लेकिन जब भगवान शंकर जी के पास गया तो उन्होने कहा कि मोह का आवरण इतनी आसानी से नहीं जाता। संत का साथ करो। उनका सत्संग करो। और ऐसे नहीं। ‘तब बहू काल किए सत्संगा’। करना यही है किसी संत को हृदय में बिठाना होगा।
महर्षि पतंजली ने सूत्र दिया ‘वीतराग विषयं वा चित्तम्’। साथ होना और बात होती है जुड़ना और बात होती है। नाला नदी के साथ सालों-साल बहता रहे नाले के रूप में कोई परिवर्तन नहीं होगा। नाले को जुड़ना होगा नदी से। ऐसे ही संत के साथ करने से कोई लाभ नहीं बल्कि हमें जुड़ना पड़ेगा। संत को चित्त में बिठाना पड़ेगा। जब तक संत या गुरु चित्त में नहीं बैठते तब तक कितना ही साथ करते रहो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। चित्त वो स्थान है जहाँ आत्मा समाप्त होती है औरे प्रकृति प्रारम्भ होती है। यहाँ से विचार शरू होता है। जैसे फिल्टर लग जाता है किसी नल में तो पानी साफ आने लगता है वैसे ही अगर गुरु हमारे चित्त में बैठ जाता है तो वहाँ से जितने विचार निकलते हैं फिल्टर हो जाते है। फिर यह मोह व्याप्त नहीं हो पाता। गुरु बड़ी सहजता से हमें प्रकृति से निर्पेक्ष कर देता है और आत्मा से सापेक्ष कर के जोड़ देता है। जो मेरा मन, बुद्धि अहम् अब तक प्रकृति से जुड़ा था, प्रकृति के संयोग से काम कर रहा था वह अब आत्मा के इशरे पर काम करता है। आत्मा से जुड़ने से इनका स्वरूप और काम करने का तरीका बदल गया। जब मन प्रकृति के संयोग में था तो उसमें काम, क्रोध, लोभ मोह था। बुद्धि में बहुत सारा ज्ञान भर रखा था। अहम् में-मैं मेरा तू-तेरा था । लेकिन जब इनका संयोग आत्मा से हो गया। इनमे से सारे विकार निकल गए तो अब मेरे मन में न राग है न द्वेष है न घृणा। मन में सबके लिये प्रेम है। मेरी बुद्धि में दिव्य आत्मा का बोध भर गया जहाँ चारो आयामों का ज्ञान हो गया।
मैने देख लिया कि स्थूल सूक्ष्म, कारण और कारण के परे मेरा स्वरूप क्या है और मैं परमात्मा का विचार एको हम बहुत स्याम अब अनुभव कर रहा हूँ कि मै वही हूँ। प्रकृति में बैठा हूँ। मेरा मन मेरा शरीर प्रकृति से बने हैं लेकिन इनका संयोग आत्मा से हो जाने से इन सब में दिव्य प्रकाश भर गया। मेरीे बुद्धि में आत्मा का ज्ञान भर गया। संसार वही है, मैं वही हूँ लेकिन मेरे अन्दर ज्ञान भर गया। इस बदलाव से मेरा व्यवहार बदल गया। मेरे विचार बदल गए। अब मेरे मन में किसी के लिये घृणा नहीं किसी के प्रति द्वेष नहीं, राग नहीं , सबसे प्रेम करता हूँ सबका भला चाहता हूँ। मैं वही हूँ, मेरा मन वही है लेकिन इनका स्वरूप बदल गया। मन और बुद्धि और अहम् मरते नहीं पर इनका काया कल्प हो जाता है। जब इनमें आत्मा की शक्ति भर जाती है, इनका स्वरूप आत्मामय हो जाता है। जो परमात्मा चाहता था कि प्रकृति का भी आनन्द लूँ और आत्मा का भी आनन्द लूँ यह यथार्थ हो जाता है। आत्मा से सपर्क होने से प्रकृति के दोष नहीं रहेे। अब वही मन अच्छे विचार, भाव पैदा करता है। आँखे वही है संसार की विभीषिकाओं से रोती थी, दुःख में रोती थी लेकिन आज परमात्मा, गुरु के लिये रोती है। मेरे गुरु ने कितनी कृपा कर दी मुझे आत्मा का बोध करा दिया। मैं कहाँ जा रहा था क्या कर रहा था। मेरा रास्ता बदल दिया। उनके लिये बार-बार मेरी आँखों में आसूँ आ जाते हैं, कृतज्ञता से। कितनी कृपा कर गए। विष का कीड़ा विष ही पीता है लेकिन मेरे गुरु ने कीड़े का स्वरूप ही बदल दिया। संसार के विषयों में डूबा था पर गुरु ने किस आनन्द लोक में स्थापित कर दिया । बोध करा दिया। गुरु बोधमय है। मैं भी उनकी कृपा से बोधमय हो गया।
अब मेरे कार्य व्यक्तिगत नहीं रहे। मेरे कार्य सार्वजनिक हो गए। मेरे विचारों में, मेरे कर्मो में खुलापन आ गया। मैं सब के लिये हूँ। हमारे गुरु महाराज ने यही रास्ता दिखलाया। संसार में रह कर ही यह अवस्था प्राप्त कर सकते है । समस्याओं में रहकर समस्या का समाधान कर सकते है अलग हट कर नहीं । इसलिये उन्होने नहीं कहा कि घर छोड़ दो। इसी में रह कर वह पद प्राप्त कर जाओगे जो अच्छे-अच्छे योगी नहीं प्राप्त कर पाते हैं। बहुत सुन्दर उपाय दिया कि उस बोधमय अवस्था की प्रत्यक्ष अनुभूति करो। Realise that state. खाली ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमारे गुरु महाराज ने हमें वह साधना दी जिससे हमें यह बोध हो जाता है मैं क्या हूँ, संसार क्या है। जिसे प्राप्त कर जीवन का श्रेयस प्राप्त हो जाता है। जीवन सुन्दर हो जाता है।
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