गीता में यह सब प्रश्न आते हैं। अर्जुन भगवान कृष्ण से प्रश्न करता है माधव! आप कहते हैं यहाँ सब में परमात्मा व्याप्त है फिर जब परमात्मा सत्य है ज्ञान है, आनन्द है तो संसार में दुःख, क्लेश, अशान्ति, अवसाद क्यों? यह सब गुण यहाँ सब में होने चाहिये? भगवान अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं हे! पार्थ वास्तव में यहाँ परमात्मा व्याप्त है पर अज्ञान के कारण नहीं समझ पा रहे। इस अज्ञानता के रहस्य को हमारे शास्त्र समझाते हैं। एक बार उस निराकार परमात्मा जो आनन्द घन है एक विचार हुआ कि ‘एकाकी न रमते एकोहम् बहुस्याम्’। मैं बहुत हो जाऊँ। वही परमात्मा यहाँ प्रकृति के संयोग में आने के बाद बहुत हो गया। जो कुछ हम आप देख रहें है उसी परमात्मा का रूप है। लेकिन प्रकृति का संयोग है।
भगवान कृष्ण गीता में इस संयोग का क्या प्रभाव हुआ बतलाते हैं। प्रकृति तम् है और परमात्मा सत् है। जैसे परमात्मा और प्रकृति के जुड़ने से यहाँ जीव पैदा हुआ ऐसे ही परमात्मा के सत् और प्रकृति के तम से यहाँ रज पैदा हुआ। तीन गुण हो गये सत् रज और तम्। रज का कार्य भगवान कृष्ण गीता में समझाते हैं। काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। हे अर्जुन इस रज का काम यह कि हममें कामना या इच्छायें पैदा करना। इन इच्छाओं के वष में आकर हम सब कार्य करते हैं। यह सब काम मेरे बंधन के कारण बनते हैं। रज ‘ महाषनो महापाप्मा ’ । रज महापापी है और इसका पेट कभी भी नहीं भरता। ढाई सौ ग्राम अन्न से हमारा पेट भर जाता है पर कामनाओं से हमारा मन कभी नहीं भरता।
धन, वस्तुओं की लालसा समाप्त ही नहीं होती। इन्ही कामनाओं की पूर्ति के लिये हम सारा जीवन लगे रहते हैं। किसी तरह इन कामनाओं का नाष हो जाए तो हमें दुःख नहीं होगा अषान्ति नहीं होगी। एक बहुत सुन्दर प्रसंग आता है रामायण में। भगवान राम का वनवास हो गया। रात में निषाद के यहाँ विश्राम कर रहे थे। मूँज की घास का बिछौना । लक्ष्मण और निषाद पहरे पर बैठे हैं। निषाद कहता है हे! लक्ष्मण ऐसे लोग किस कारण पृथ्वी पर बिछाई मूँज की घास पर सो रहे हैं। कितना दुःख इन्हे मिल रहा है। लक्ष्मण बहुत सुन्दर जबाब देते हैं।
काहू न कोउ सुख दुख करदाता। निज कृत कर्म भोग सब भ्राता।
इस संसार में कोई किसी को दुख देने वाला नहीं है। सब अपने-अपने कर्मो का फल भोगते हैं। मेरी कामनाए मुझसे सारे काम करा रहीं हैं जिसके कारण मेरा बंधन बन रहा है। कैसे यह कामनायें शान्त हो जाए। कामनाओं ने विषेष रूप धारण कर लिया है। कामना मुझमें समा गई है। मैं और कामनाए दोनों एक हो गए हैं। यह कामनायें मुझ में बिंध गई हैं, मेरा जीवन ही कामनामय हो गया है तो इसका नाष कैसे हो?
शास्त्र कहते हैं इन कामनाओं को पहले अपने से अलग करें। जब तक अलग नहीं होंगीं इनका नाष नहीं होगा चाहे कितना ही प्रयास करते रहें। शत्रु बाहर हो तब नाष हो सकता है। शास्त्र बहुत सुन्दर उपाय देते हैं- अपने को जानो। अपने को जानेंगे तब जब मैं जिससे अलग हुये थे उससे जुड़ेगे। प्रकृति के संयोग के कारण मैं आत्मा से अलग हुआ हूँ। प्रकृति से निरपेक्ष हो जाऊँ और आत्मा से सापेक्ष हो जाऊँ तो काम हो जाएगा। जब आत्मा से जुड़ जाऊँगा तो देखूँगा कि मैं परमात्मा हूँ जितनी भी कामनाऐं थीं सब विकार थे, जो मुझ में चिपकी हुई कामनायें थी वह अलग हो जाऐगे और मैं अपने इष्वरीय स्वरूप को प्राप्त कर जाऊँगा। आपका जीवन सुन्दर हो जायेगा। अपने ईष्वरीय स्वरूप को प्राप्त करने के लिये अध्यात्म ज्ञान परम आवश्यक है।
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