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We originate from the source energy, the 'Soul', and we have to return back there. This is the main purpose of our life

Shri Krishnakant Sharmaji

Our simple process of spiritual practice uplifts seekers to a peaceful state where they realise their True Self

Param Pujya Shri Krishnakant Sharmaji

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत, क्षुरासन्न धारा निशिता दुरत्यद्दुर्गम पथ: तत् कवयो वदन्ति |

Katha Upanishad

सत्संग समर्थ गुरु के हृदय से प्रवाहित एक पवित्र धारा है

परम पूज्य श्री कृष्णकांत शर्माजी

सत्संग एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम जीवन की पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं

परम पूज्य श्री कृष्णकांत शर्माजी

रामाश्रम सत्संग मथुरा का दर्शन

सत्संग की विचारधारा.

गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से  कहते हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।

जब-जब धर्म की हानि होती है, अधर्म का प्रचार होता है, समाज का स्वरूप बदल जाता है तब-तब परमात्मा का अवतरण होता है। ऐसे ही हमारे दे में  19 वीं सदी के अन्तिम चरण में गुलामी की लम्बी दासता के कारण हमारे समाज की दशा बहुत शोचनीय थी। न शिक्षा थी, न अच्छे संस्कार थे न आत्म उन्नति का उपाय था। सब के मन में निराषा छायी हुई थी। राग द्वेष के कारण समाज में अशान्ति छायी हुई थी। तभी इस समाज की दशा को सुधारने और सबके मन से निराशा को समाप्त करने के लिये  3 नवम्बर 1883 को हमारे गुरु महाराज का अवतरण इस धरा धाम में हुआ। गुरु महाराज ने  प्रयास किया कि एक ऐसे समाज की रचना की जाये जिसमे समरसता हो, सबका सम्मान हो और आत्म कल्याण का स्रोत हो। उन्होने अनुभव किया कि आत्म कल्याण के लिये लोगों को धर्म का उपदेश देने से कोई विशेष  लाभ नहीं होगा।  आत्म जागृति की आवष्यकता है। लोगों को अपनी क्षमताओं के बारे में ज्ञान हो। गीता में हम देखते हैं भगवान कृष्ण अर्जुन को कितना उपदेश करते हैं पर न ही उसका संशय मिटता है न मोह दूर होता है । तब भगवान कृष्ण ने मौखिक उपदेश छोड़ कर अर्जुन को प्रत्यक्ष अनुभव कराया कि वास्तव में  वह क्या है।

ज्ञान तीन तरह का होता है। अनुमान, प्रमाण और प्रत्यक्ष। किसी चीज का प्रत्यक्ष ज्ञान वह होता है जो हमारे अनुभव में उतर जाता है कि उस वस्तु का  असली स्वरूप वास्तव में क्या है। गुरु महाराज ने भी प्रत्यक्ष अनुभव कराने का रास्ता अपनाया। उन्होने यह प्रयास किया कि समाज के हर व्यक्ति  को उठा के वहाँ ले जायें जहाँ पूरा समाज समाधि में जा कर प्रत्यक्ष अनुभव कर सके कि वह क्या है? क्या कर रहा है और उसका  कर्तव्य क्या है? उसका आचरण कैसा है और कैसा होना चाहिये। यह अवस्था लाए बिना आत्म जागृति के सम्भव नहीं है।  आत्म जागृति के लिये उन्होने एक सरलतम् साधना ढंँढ़ी जिस पर चल के  साधारण जन समूह आत्म जागृति कर सके। सभी का आत्म कल्याण हो।

गीता में भगवान कृष्ण ने जो कुछ अर्जुन से कहा था उसका प्रेक्टीकल स्वरूप उन्होंने अपनी साधना में  दिया। उन्होंने प्रवचन नहीं किया। पहले उस रास्ते पर  चल कर स्वयं अनुभव किया कि यह रास्ता उचित है कि नहीं।  जैसे पर्वत पर चढ़ाई करने वालों में से सबसे दक्ष व्यक्ति मेहनत कर के पहाड़ के ऊपर चढ़ जाता है फिर चारों तरफ देख कर ऊपर चढ़ने का सरल रास्ता खोज के बाकी लोगों को बताता है इधर से आओ आसानी से ऊपर आ जाओगे। वैसे ही गुरु महाराज  ने अध्यात्म के चरम् शिखर पर पहुँच कर खोज की कि सरलतम् मार्ग कौन सा है जिस पर चल कर समाज का हर व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरूष , चाहे पढ़ा लिखा  चाहे अनपढ़  सब अपना आत्म कल्याण कर सकते हैं। उनका विवेक जागृत हो सकता है। उन्होने  उस रास्ते का नाम रखा ‘सत्संग’।  

सत्संग जहाँ बैठ कर सत्य का साथ कर के आत्म जागृति हो। उसमें उन्हांने अपनी शक्ति प्रवाहित की। कोई भी उस धारा में बैठे उसे शान्ति का अनुभव होगा, विवेक का अभ्युदय होगा। स्वयं देख सके कि मैं क्या कर रहा हूँ। मैं कहाँ गलत काम कर रहा हूँ और मुझे क्या करना चाहिये। उन्हांने एक सुन्दर विचार धारा दी समाज के कल्याण के लिये। एक विशेष जन समूह जो सामने आ गया उनको दिखाया कि वास्तव में सत्य क्या है।  उनका स्वप्न था ऐसे समाज की रचना हो जहाँ न जाति न धर्म न सम्प्रदाय हो बल्कि सब भाई-भाई हो। सब में सबके लिये सम्मान हो। सभी एक दूसरे का आदर करें। गुरु महाराज ने अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने के तरीके को एक नया स्वरूप दिया। उनके द्वारा प्रदŸा क्रिया एक आध्यत्मिक क्रान्ति कह सकते हैं। जैसे आज हम देखते हैं विज्ञान की खोज के कारण महीनों की यात्रायें घंटो में हो जाती हैं। ऐसे ही हमारे गुरु महाराज ने वह साधना दी कि जन्मों-जन्मों की साधना से जो अवस्थायें  प्राप्त नहीं होती हैं वह आधे-आधे घंटे की सुबह शाम साधना से प्राप्त होती है। क्योंकि उन्हांने इस साधना में अपनी शक्ति भर दी। एक नये समाज की रचना की और उसका स्वरूप दिया ‘परिवार’। यह सत्संग मेरा परिवार है। यहाँ कोई गुरु नहीं, कोई षिष्य नहीं। सभी परिवार के सदस्य हैं। उन्होने बहुत सरलतम् विधि से आत्म ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग खोला। 

‘सत्संग’ करने के लिये आयु,  धर्म जाति की सीमा नहीं रखी । हरेक के लिये रास्ता खोल दिया। कैसे भी आप हो बैठ जाओ। न जाप करना न कुछ कठिन क्रिया करना है। बैठने मात्र से आप अध्यात्म की ऊँचाईयों को छूने लगोगे। आप विचार करें पानी बरसता है यदि हम बरसते पानी में चले जाते हैं तो सहज ही भीग जाते हैं। हमें कोई प्रयास नहीं करना होता है। ऐसे ही गुरु महाराज सत्संग के दौरान अमृत बरसा देते हैं, जो भाई उस अमृत बरसात में बैठ गये वह दूसरी दुनिया में चले गये। दुर्लभ प्रेम  सब में बहा दिया। सभी प्रेम के दायरे में बंध गए। सत्संग एक परिवार बन गया।  सत्संग की यह  प्रवाहित धारा उनकी अनोखी देन थी । हम आप जानते हैं आज तक इतने महापुरूष आए, कितने संत आए , सब ने यही कहा इतना जाप करो, यह क्रिया करो, इतना तप करो,त्याग करो।

हमारे गुरु महाराज ने कहा हने वाले महापुरूष  संसार में वही थे। उन्होने एक नई साधना समाज के सामने रखी। यह दिखाया कि अध्यात्म ज्ञान उतना कठिन नहीं है जितना लोगों ने बना रखा है। अध्यात्म ज्ञान सरलतम् ज्ञान है, एक सहज ज्ञान है कोई कठिन प्रयास नहीं करना है। एक शान्त अवस्था में ले गए जहाँ साधक ने देख लिया कि मैं क्या हूँ, यह संसार क्या है। राग नहीं रहा, द्वेष नहीं रहा। सब के लिये प्रेम भर गया। उस अमृत देने वाले महापुरूष का निर्वाण 24 सितम्बर  सन् 1957 में हुआ। वास्तव में गुरु का शरीर  शान्त नहीं होता है। बस रूप बदल कर विराट स्वरूप में आ जाता है। जब तक विचार धारा चलती है  महापुरूष का शरीर रहता है प्रत्यक्ष में नहीं अप्रत्यक्ष रूप में। वही काम जो गुरु महाराज ने शुरू किया पूज्य पंडितजी महाराज ने और आगे बढ़ाया। शक्ति वही उसे और विषाल रूप में ले गए और जन जन में, देष के कोने-कोने में फैला दिया।  आज हम देखते हैं जो भी सुनता है, बैठ जाता है बस उन्ही का हो जाता है। कोई ज्ञान के विशेष उपदेश नहीं होते, ज्ञान की चर्चा नहीं होती केवल बैठने मात्र से शान्ति की  अवस्था में चले जाते हैं। उनका वादा है जहाँ पाँच भाई बैठ कर उन्हे याद करेंगे वहाँ मैं अवश्य आऊँगा। इस सत्संग का विराट स्वरूप गुरु महाराज का ही स्वरूप है।

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